संयम का अर्थ है इच्छाओं का दमन- श्रमणाचार्य श्री
स्टेट हेड शमीम की रिपोर्ट
बाराबंकी।।संयम का अर्थ है इच्छाओं का दमन- श्रमणाचार्य श्री
संयम धर्म- क्रोध, अभियान, मायाचार, और लोभ से अपने आपको बचाना एवं पाँच इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति नही करने का नाम ही संयम है। यह संयम धर्म दो प्रकार का होता है-
1. इन्द्रिय संयम – पाँच इन्द्रियों के विषयों में मन नही ले जाना, अर्थात इन्द्रियों का भोग नही करना इन्द्रिय संयम है।
2. प्राणी संयम -सभी प्रकार के जीवों की रक्षा का संकल्प करना प्राणी संयम कहलाता है।
संयम धर्म को केवल मनुषय ही धारण कर सकते है, इसलिये यह संयम धर्म महान कहा गया है।
संयम उसी के जीवन में आ सकता है जिसने अपने क्रोध, अग्रिमान, मायाचार और लोभ इन कषायोे की जीत लिया है। जहाँ बाहर तो संयम का पालन हो और अंतरंग में क्रोध आदि भाव घुमड़ते हो वहाँ संयक धर्म नही पल सकता। संयम धर्म का महल उत्तम क्षमा धर्म , उत्तम मार्दव धर्म, उत्तम आजीव धर्म और उत्तम शौच धर्म की ठोस नीव पर खड़ा होता है अगर ये नीव न हो तो संय का महल क्षण्भर में भरभरा कर गिर जताा है क्रोधादि भावों के आने पर संयम खो जाता है। पता ही नही चलता। क्रोधादि कषाये और संयम धर्म दोनों एक साथ नही रह सकते। कषायों पर विजय प्राप्त किये बिना संयम धर्म प्रगट नही होता।
पूर्ण संयमी कौन- संयम धर्म को पूर्णरूप से धारण करने वाले दिगम्बर जेन मुनिराज होते है। जैन मुनि पाँच इन्द्रियों के विषयों के त्यागी होते है एवं सभी प्रकार के जीवों की रक्षा का संकल्प स्वीकार करते है। इसी संयम धर्म के पालन के लिए सूक्ष्म जीवों की रक्षा के लिए वो अपने हाथ में मयूर पंख की कोमल पिच्छी धारण करते है। संयम की उपयोगिता- संयम का अर्थ है इच्छाओं का एक जाना सारी दुनिया इच्छापूर्ती में लगी हुई है, लेकिन इतिहास साक्षी है कि इच्छाओं की पूर्ती करके कभी इच्छाओं का अंत नही हुआ। व्यक्ति जितना जितना इच्छापूर्ति के मार्ग पर आगे बढ़ता है उतना उतना इच्छाओं का नया संसार सामने निर्मित होता चला जाता है। इच्छाओं पर विजय प्राप्त करना है तो जीवन में संयम जरूरी है। संयम का अर्थ है इच्छाओं का निरोध हो जाना। जितना जितना संयम जीवन में आता है उतना ही इच्छाओं का दमन होता शुरू हो जाता है। दुख का मूल विरक्त होकर आत्मशान्ति के उपाय में लग जाता है। इन्द्रिय और मन की आपूर्ती में लगा मुनष्य एक मान गुलामियत का जीवन जीता है। दूसरो को अपनी शक्ति से दबाना सरल है पर अपनी शक्ति से इन्द्रियां को दबान बहुत कठिन काम है। विश्व विजेता बनना सरल है पर आत्मविजेता बनना कठिन है। आत्मविजेता ही दुनिया का सबसे बड़ा बिजेता है।
संयम को ‘वे स्थान पर क्यों रखा जाता है- जब तक क्रोधादि चार कषाये और असत्य से जीव नही छूटता तब तक संयम का जन्म नही होता अतः संयम को 10 धर्माे की श्रृखंला में 6 वे स्थान पर रखा गया है एवं संयम के होने पर ही आगे के तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्यचर्य धर्म धारण किये जा सकते है।
मन पर संयम कैसे रखें- दुनिया में मन को जीतना सबसे कठिन कार्य है, मन की मांग पूरी करने से मन शान्त नहीं होता, मन को जितना भोगों से संजष्ठ करने का प्रयास करोगे यह मन उतनी ही असंतुष्ठी जाहित करेगा। लेकिन जब मन को कंट्रोल कर दिया जाता है तो धीरे-धीरे मन की उछल कुँद शान्त हो जाती है। मन संतुष्ट हो जाता है।
किसी ने कहा भी है-
मन जाता तो जान दे, तू मत जाये शरीर।
उतरी धरी कमान पर, क्या करेगा तीर।।
गुरू की सीख- यह संयम धर्म पाँच इन्द्रिय और मन को बस में करने की कल है। आज वर्तमान में ज्ण्ट मोबाइल आदि के माध्यम से नगर-नगर और डगर-डगर असंयम परोसा जा रहा है और न ही वस्त्र आदि पहिनने का। जिसे देखो वही भोगो की दौड़ में आगे निकलना चाहता है, हम भोगों की दौड़ मंे कितना भी आगे निकल जायें, लेकिन वास्त्रविकता में हम अपने पवित्र संस्कारो के क्षेत्र में पिछड़ते चले जा रहे है। वर्तमान में अगर विश्व को इस असंयम भरे माहौल से निकलने के लिए भगवान महावीर के संयम धर्म को अपनाना होगा।
संयम धर्म स्वस्थ और शालीन जीवन जीने की कला सिखाता है। सांय कालीन सभा में बच्चों द्वारा फैन्सी ड्रस का कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया जिसको सभी ने जूम एप और सोशल डिस्टेसिंग का पालन करते हुए देखा। जिनमें मुख्य रूप से अस्तिक जैन, शत्रु जैन, निष्ठा जैन, सम्मेद जैन, अंश जैन, भव्य जैन आदि उपस्थित रहे।