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भारत

शिवगिरी तीर्थ के 90वीं जयंती और ब्रह्म विद्यालय की स्वर्ण जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री के संबोधन का मूल पाठ

रिपोर्ट शिवा वर्मा के साथ समित अवस्थी

शिवगिरी तीर्थ के 90वीं जयंती और ब्रह्म विद्यालय की स्वर्ण जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री के संबोधन का मूल पाठ

श्री नारायण धर्म संघम ट्रस्ट के अध्यक्ष स्वामी सच्चिदानंद जी, जनरल सेक्रेटरी स्वामी ऋतमभरानंद जी, केंद्रीय मंत्रिपरिषद के मेरे साथी, केरल की धरती के ही संतान श्री वी. मुरलीधरण जी, राजीव चंद्रशेखर जी, श्री नारायण गुरु धर्म संघम ट्रस्ट के अन्य सभी पदाधिकारी गण, देश-विदेश से आए सभी श्रद्धालु-गण, देवियों और सज्जनों,

जब संतों के चरण मेरे घर में आज एक प्रकार से आप कल्पना नहीं कर सकते हैं, मेरे लिए कितना आनंद का पल है ये।

एल्ला प्रियपट्टअ मलयालि-गल्कुम्, एन्डे, विनीतमाया नमस्कारम्। भारतत्तिन्डे, आध्यात्मिक, चैतन्यमाण, श्रीनारायण गुरुदेवन्। अद्देहत्तिन्डे, जन्मत्ताल्, धन्य-मागपट्टअ, पुण्यभूमि आण केरलम्॥

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संतों की कृपा और श्री नारायण गुरु के आशीर्वाद से मुझे पहले भी आप सबके बीच आने का अवसर मिला है। शिवगिरी आकर के आप सबका आशीर्वाद लेने का सौभाग्य मिला है। और मैं जब भी वहां आया, उस आध्यात्मिक भूमि की ऊर्जा को हमेशा अनुभव किया। मुझे ख़ुशी है कि आज शिवगिरि तीर्थ उत्सव में, और ब्रह्म विद्यालयम् की गोल्डेन जुबली के आयोजन में भी मुझे शामिल होने का आप सब ने पुण्य कार्य करने का अवसर दिया है। मैं नहीं जानता हूं कि आप लोगों से मेरा नाता किस प्रकार का है, लेकिन कभी-कभी मैं अनुभव करता हूं और उस बात को मैं कभी भूल नहीं सकता हूं, जब केदारनाथ जी में बहुत बड़ा हादसा हुआ, देशभर के यात्री जीवन और मृत्यु के बीच में जूझ रहे थे। उत्तराखंड में और केंद्र में कांग्रेस सरकार थी और केरल के ही श्रीमान एंटनी रक्षामंत्री थे, इन सब के बावजूद भी मुझे अहमदाबाद में मैं मुख्यमंत्री गुजरात में शिवगिरी मठ से मुझे फोन आया कि हमारे सारे संत फंस गए हैं, उनका कोई संपर्क नहीं हो पा रहा है, वह कहां है, क्या स्थिति है कुछ पता नहीं चल रहा है। मोदी जी यह काम आपको करना है। मैं आज भी सोच नहीं पाता हूं कि इतनी बड़ी-बड़ी सरकार होने के बावजूद भी शिवगिरी मठ में इस काम के लिए मुझे आदेश किया। और यह गुरु महाराज की कृपा रही कि गुजरात में मेरे पास उतने तो संसाधन नहीं थे, फिर भी मुझे इस पुण्य कार्य का सेवा का मौका मिला और सभी संतों को सुख रूप में वापस ले आ पाया और शिवगिरी मठ पहुंचा पाया। उस फोन कॉल से ही मेरे लिए सचमुच में वो हृदय को छू लेने वाली घटना थी कि ऐसा क्या गुरु महाराज का आशीर्वाद होगा, इस पवित्र कार्य के लिए आपने मुझे चुना। आज यह भी शुभ अवसर है, इस अवसर में मुझे आपके साथ जुड़ने का मौका मिला है। तीर्थदानम् की 90 सालों की यात्रा और ब्रह्म विद्यालयम् की गोल्डेन जुबली, ये केवल एक संस्था की यात्रा नहीं है। ये भारत के उस विचार की भी अमर यात्रा है, जो अलग-अलग कालखंड में अलग-अलग माध्यमों के जरिए आगे बढ़ता रहा है। भारत के दर्शन को जीवंत बनाए रखने में, भारत की इस आध्यात्मिक और वैज्ञानिक विकास यात्रा में केरलाणकय ने हमेशा अहम योगदान निभाया है और जरूरत पड़ने पर नेतृत्व भी किया है। ‘वर्कला’ को तो सदियों से दक्षिण की काशी कहा जाता है। काशी चाहे उत्तर में हो या दक्षिण में! वाराणसी में शिव की नगरी हो, या वर्कला में शिवगिरी, भारत की ऊर्जा का हर केंद्र हम सभी भारतीयों के जीवन में विशेष स्थान रखता है। ये स्थान केवल तीर्थ भर नहीं हैं, ये आस्था के केंद्र भर नहीं हैं, ये ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की भावना को एक प्रकार से उसका जाग्रत प्रतिष्ठान हैं। मैं इस अवसर पर श्री नारायण धर्म संघम् ट्रस्ट को, स्वामी सच्चिदानंद जी को, स्वामी ऋतंभरानन्द जी को, और स्वामी गुरुप्रसाद जी को ह्रदय से बहुत-बहुत बधाई देता हूँ। तीर्थदानम् और ब्रह्म विद्यालयम् की इस स्वर्णिम यात्रा में, इस आयोजन में लाखों करोड़ों अनुयायियों की अनंत आस्था और अथक परिश्रम भी शामिल है। मैं श्री नारायण गुरु के सभी अनुयायियों को, सभी श्रद्धालुओं को भी हार्दिक शुभकामनायें देता हूँ। आप सभी संतों और पुण्य आत्माओं के बीच आज जब मैं बात कर रहा हूं, तब भारत की विशेषता ये है कि जब भी समाज की चेतना कमजोर होने लगती है, अंधकार बढ़ता है, तब कोई न कोई महान आत्मा एक नए प्रकाश के साथ सामने आ जाती है। दुनिया के कई देश, कई सभ्यताएं जब अपने धर्म से भटकीं, तो वहाँ आध्यात्म की जगह भौतिकतावाद ने ले ली। खाली तो रहता नहीं है, भौतिकवाद ने भर दिया। लेकिन, भारत कुछ अलग है। भारत के ऋषियों, भारत के मुनियों, भारत के संत, भारत की गुरुओं ने हमेशा विचारों और व्यवहारों का निरंतर शोधन किया, संशोधन किया और संवर्धन भी किया। श्री नारायण गुरु ने आधुनिकता की बात की! लेकिन साथ ही उन्होंने भारतीय संस्कृति और मूल्यों को समृद्ध भी करने का निरंतर काम किया। उन्होंने शिक्षा और विज्ञान की बात बताई, लेकिन साथ ही धर्म और आस्था की हमारी हजारों साल पुरानी परंपरा का गौरव बढ़ाने में कभी पीछे नहीं रहे। यहाँ शिवगिरी तीर्थ के जरिए वैज्ञानिक चिंतन की नई धारा भी निकलती है, और शारदा मठ में माँ सरस्वती की आराधना भी होती है। नारायण गुरु जी ने धर्म को शोधित किया, परिमार्जित किया, समयानुकूल परिवर्तन किया। काल बाहिर्य चीजों को छोड़ा। उन्होंने रूढ़ियों और बुराइयों के खिलाफ अभियान चलाया और भारत को उसके यथार्थ से परिचित करवाया। और वो कालखंड सामान्य नहीं था, रूढ़ियों के खिलाफ खड़ा होना, ये छोटा-मोटा काम नहीं था। आज हम इसकी कल्पना नहीं कर सकते हैं। लेकिन वह नारायण गुरु जी ने करके दिखाया। उन्होंने जातिवाद के नाम पर चल रहे ऊंच-नीच, भेदभाव के खिलाफ तार्किक और व्यावहारिक लड़ाई लड़ी। आज नारायण गुरू जी की उसी प्रेरणा को लेकर देश गरीबों, दलितों, पिछड़ों की सेवा कर रहा है, उन्हें उनके हक जो मिलना चाहिए, उनको जो अधिकार मिलना चाहिए, उसको उन अधिकारों को देना, ये हमारी प्राथमिकता रहा है। और इसीलिए, आज देश ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ के मंत्र के साथ आगे बढ़ रहा है।

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श्री नारायण गुरू जी आध्यात्मिक चेतना के तो अंश थे ही थे, आध्यात्मिक प्रेरणा के प्रकाश पुंज थे, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि श्री नारायण गुरु जी समाज सुधारक भी, विचारक भी और युगदृष्टा भी थे। वो अपने समय से कहीं आगे की सोच रखते थे, वह बहुत दूर का देख पाते थे। इसकी वजह से आप कल्पना कर सकते हैं गुरुदेव एक radical thinker के साथ ही एक practical reformer भी थे। वो कहते थे कि हम यहां जबरन बहस करके जीतने के लिए नहीं आए हैं, बल्कि हम यहां जानने के लिए, सीखने के लिए आए हैं। वो जानते थे कि समाज को वाद-विवाद में उलझाकर नहीं सुधारा जा सकता। समाज में सुधार आता है, जब लोगों के साथ काम किया जाए, उनकी भावनाओं को समझा जाए और लोगों को अपनी भावनाएं समझाई जाएं। जिस पल हम किसी से बहस करने लग जाते हैं उसी पल, सामने वाला व्यक्ति अपने पक्ष के लिए तर्क-वितर्क-कुतर्क सब खोजकर के परोस देता है। लेकिन जैसे ही हम किसी को समझना शुरू कर देते हैं, सामने वाला व्यक्ति हमें समझना शुरू कर देता है। नारायण गुरू जी ने भी इसी परंपरा का, इसी मर्यादा का हमेशा पालन किया। वो दूसरों की भावनाओं को समझते थे और फिर अपनी बात समझाने का प्रयास करते थे। वो समाज में उस वातावरण का निर्माण करते थे कि समाज खुद ही सही तर्कों के साथ अपने आप सुधार की प्रक्रिया में जुट जाता था। जब हम समाज में सुधार के इस मार्ग पर चलते हैं तो फिर समाज में स्वयं सुधार की एक शक्ति भी जागृत हो जाती है। अब जैसे हमारी सरकार ने बेटी-बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान शुरू किया। कानून तो पहले भी थे, लेकिन बेटियों की संख्या में सुधार हाल ही के कुछ वर्षों में ही हो पाया है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमारी सरकार ने समाज को सही बात के लिए प्रेरित किया, सही वातावरण तैयार किया। लोगों को भी जब लगा कि सरकार सही कर रही है, तो स्थितियों में तेजी से सुधार भी आने लग जाता है। और सच्चे अर्थ में सब का प्रयास, उसके फल नजर आते हैं। समाज में सुधार का यही तरीका है। और ये मार्ग हम जितना श्री नारायण गुरू को पढ़ते हैं, सीखते हैं, उनको समझते हैं, उतना ही वो स्पष्ट होता चला जाता है।

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श्री नारायण गुरु ने हमें मंत्र दिया था-

“औरु जाथि

औरु मथम

औरु दैवं मनुष्यानु”।

उन्होंने One Caste, One Religion, One God इसका आह्वान किया था। अगर हम नारायण गुरू जी के इस आह्वान को बहुत गूढ़ता से समझें, इसके भीतर छिपे संदेश को समझें तो पाएंगे कि उनके इस संदेश से आत्मनिर्भर भारत का भी मार्ग बनता है। हम सभी की एक ही जाति है- भारतीयता, हम सभी का एक ही धर्म है- सेवाधर्म, अपने कर्तव्यों का पालन। हम सभी का एक ही ईश्वर है- भारत माता की 130 करोड़ से अधिक संतान। श्री नारायण गुरू जी का One Caste, One Religion, One God आह्वान, हमारी राष्ट्रभक्ति की भावना को एक अध्यात्मिक ऊंचाई देता है। हमारी राष्ट्रभक्ति, शक्ति का प्रदर्शन नहीं बल्कि हमारी राष्ट्रभक्ति, मां भारती की आराधना, कोटि कोटि देशवासियों की सेवा साधना है। हम इस बात को समझते हुए आगे बढ़ें, श्री नारायण गुरू जी के संदेशों का पालन करें, तो दुनिया की कोई भी शक्ति हम भारतीयों में मतभेद पैदा नहीं कर सकती। और ये हम सब जानते हैं कि एकजुट हुए भारतीयों के लिए दुनिया का कोई भी लक्ष्य असंभव नहीं है।

साथियों,

श्री नारायण गुरु ने तीर्थदानम् की परंपरा को आज़ादी के पहले शुरू किया था। देश भी इस समय अपनी आज़ादी के 75 साल का अमृत महोत्सव मना रहा है। ऐसे समय में हमें ये भी याद रखना चाहिए कि हमारा स्वतन्त्रता संग्राम केवल विरोध प्रदर्शन और राजनैतिक रणनीतियों तक ही सीमित नहीं था। ये गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने की लड़ाई तो थी ही, लेकिन साथ ही एक आज़ाद देश के रूप में हम होंगे, कैसे होंगे, इसका विचार भी साथ-साथ चलता था। क्योंकि, हम किस चीज के खिलाफ हैं, केवल यही महत्वपूर्ण नहीं होता। हम किस सोच के, किस विचार के लिए एक साथ हैं, ये भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। इसीलिए, हमारे स्वाधीनता संग्राम से इतने महान विचारों की परंपरा चल पड़ी। हर कालखंड में नए विचारक मिले। भारत के लिए इतनी संकल्पनाएँ, इतने सपने एक साथ खड़े हुये। देश के अलग-अलग हिस्सों से नेता और महान लोग एक दूसरे से मिलते थे, एक दूसरे से सीखते थे। आज टेक्नोलॉजी के जमाने में हमें ये सब बड़ा आसान लग सकता है। लेकिन, उस दौर में ये सुविधाएं, ये सोशल मीडिया और मोबाइल का जमाना नहीं था उस समय, लेकिन फिर भी, ये जननायक, ये नेता एक साथ मिलकर मंथन करते थे, आधुनिक भारत की रूपरेखा खींचते थे। आप देखिए, 1922 में देश के पूर्वी भाग से गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर, यहाँ दक्षिण में आकर नारायण गुरु से मिलते हैं। तब गुरु से मिलने के बाद गुरुदेव ने कहा था कि- “मैंने आज तक नारायण गुरु से महान आध्यात्मिक व्यक्तित्व नहीं देखा है”। 1925 में महात्मा गांधी जी, गुजरात से, साबरमती के तट से, देश के पश्चिमी हिस्से से चलकर यहाँ आते हैं, श्री नारायण गुरु से मिलते हैं। उनके साथ हुई चर्चा ने गांधी जी को काफी गहराई तक प्रभावित किया था। स्वामी विवेकानंद जी स्वयं नारायण गुरु से मिलने पहुंच गए थे। ऐसी कितने ही महान विभूतियाँ नारायण गुरु के चरणों में बैठकर के सत्संग किया करती थीं। कितने विचार मंथन होते थे। ये विचार सैकड़ों सालों की गुलामी के बाद एक राष्ट्र के रूप में भारत के पुनर्निर्माण के बीज की तरह थे। ऐसे कितने ही सामाजिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक लोग एक साथ आए, उन्होंने देश में चेतना जगाई, देश को प्रेरणा दी, देश को दिशा देने का काम किया। आज हम जो भारत देख रहे हैं, आज़ादी के इन 75 सालों की जिस यात्रा को हमने देखा है, ये उन्हीं महापुरुषों के मंथन चिंतन विचारों का परिणाम है, जो आज फलस्वरूप हमारे सामने है।

साथियों,

आजादी के हमारे मनीषियों ने जो मार्ग दिखाया था, आज भारत उन लक्ष्यों के करीब पहुँच रहा है। अब हमें नए लक्ष्य गढ़ने हैं, नए संकल्प लेने हैं। आज से 25 साल बाद देश अपनी आज़ादी के 100 साल मनाएगा, और दस साल बाद हम तीर्थदानम् के 100 सालों की यात्रा भी, उसका भी उत्सव मनाएंगे। इन सौ सालों की यात्रा में हमारी उपलब्धियां वैश्विक होनी चाहिए, और इसके लिए हमारा विज़न भी वैश्विक होना चाहिए।

भाइयों और बहनों,

आज विश्व के सामने अनेक साझी चुनौतियां हैं, साझे संकट हैं। कोरोना महामारी के समय इसकी एक झलक हमने देखी है। मानवता के सामने खड़े भविष्य के प्रश्नों का उत्तर, भारत के अनुभवों और भारत की सांस्कृतिक सामर्थ्य से ही निकल सकता है। इसमें हमारी आध्यात्मिक गुरु इस महान परंपरा को एक बहुत बड़ी भूमिका निभानी है। तीर्थदानम् के बौद्धिक विमर्श और प्रयासों में हमारी नई पीढ़ी को बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मुझे पूरा विश्वास है, शिवगिरी तीर्थदानम् की ये यात्रा ऐसे ही निरंतर चलती रहेगी। कल्याण और एकता के प्रतीक और गतिशीलता की प्रतीक तीर्थयात्राएं भारत को उसके गंतव्य तक पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम बनेंगी। इसी भावना के साथ, मैं फिर एक बार आप सब यहां पधारे, मैं हृदय से आपका आभारी हूं और मुझे विश्वास है कि हम सब मिलकर के जो सपने, जो संकल्प आपने लिए हैं, मुझे भी एक सत्संगी के रूप में, एक भक्त के रूप में आपके इन संकल्पों के साथ जुड़ना मेरा अहोभाग्य होगा, मेरे लिए गौरव होगा। मैं फिर एक बार आप सब का स्वागत करते हुए, आप सब का धन्यवाद करता हूं।

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